

8 अप्रैल 1929 का दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक क्रांतिकारी मोड़ लेकर आया। इसी दिन दिल्ली स्थित केंद्रीय असेंबली भवन में भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त और विजय कुमार ने दर्शक दीर्घा से बम फेंककर ब्रिटिश हुकूमत को झकझोर दिया।
यह बम किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं था—बल्कि “बहरों को सुनाने के लिए धमाका ज़रूरी है”—इस सोच के साथ किया गया था। बम धमाके के बाद उन्होंने नारे लगाए:
“इंकलाब जिंदाबाद! साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!”
और खुद को गिरफ्तारी के लिए सौंप दिया।
यह साहसिक कदम उन्होंने दो दमनकारी विधेयकों के विरोध में उठाया था—
पब्लिक सेफ्टी बिल और इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट अमेंडमेंट बिल,
जिनका उद्देश्य मज़दूर संगठनों पर अंकुश लगाना और उनके हड़ताल के अधिकारों को छीनना था।
ब्रिटिश सरकार ने इससे पहले मेरठ षड्यंत्र केस के तहत कई कम्युनिस्ट और मज़दूर नेताओं को जेल में डाल दिया था। इस दमन की विश्व स्तर पर आलोचना हुई—यहाँ तक कि बर्नार्ड शॉ और आइंस्टाइन जैसे दिग्गजों ने भी इसका विरोध किया। इस केस की बचाव समिति के अध्यक्ष पं. मोतीलाल नेहरू थे।
अंततः, लाहौर में सांडर्स की हत्या के आरोप में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दे दी गई।